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18 साल के निचले स्तर पर क्रूड,पानी से भी सस्ता हुआ कच्चा तेल, फिर भी भारत में कम क्यों नहीं होते पेट्रोल-डीजल के दाम

Published on: April 2, 2020
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18 साल के निचले स्तर पर क्रूड,पानी से भी सस्ता हुआ कच्चा तेल, फिर भी भारत में कम क्यों नहीं होते पेट्रोल-डीजल के दाम


सुनने में भले ही यह अजीब लगे पर है यह सोलह आने सच। कच्चा तेल अब पानी से भी सस्ता हो गया है। कोरोना के कहर से दुनिया के अधिकतर देशों में लॉकडाउन है। इसकी वजह से पेट्रोल-डीजल की मांग घटी है तो वहीं दूसरी ओर सऊदी अरब और रूस के बीच कीमत युद्ध के चलते कच्चा तेल और कमजोर हुआ है। हालात यह है कि एक लीटर कच्चे तेल का दाम एक लीटर बोतल बंद पानी की कीमत से भी नीचे पहुंच गया है। मौजूदा रेट के मुताबिक एक बैरल कच्चा तेल भारतीय रुपये में करीब 1500 रुपये का पड़ रहा है। बता दें एक बैरल में 159 लीटर होते हैं और ऐसे में एक लीटर कच्चे तेल का दाम 9.43 रुपये प्रति लीटर से भी कम पड़ रहा है, जबकि भारत में पानी की एक बोतल 20 रुपये में मिलती है।
समाचार एजेंसी एएफपी के मुताबिक एशियाई बाजारों में मंगलवार को तेल कीमतों के 18 साल के निचले स्तर पर पहुंचने के बाद, कीमतों में तेज सुधार देखने को मिला। कारोबारियों ने बताया कि कोरोना वायरस महामारी के चलते बढ़ती आशंकाओं के बीच निवेशकों ने नीतिनिर्माताओं के कदम पर भरोसा किया। अमेरिकी मानक वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट 7.3 प्रतिशत उछलकर 21.5 डॉलर प्रति बैरल हो गया, जबकि अंतरराष्ट्रीय मानक ब्रेंट क्रूड 3.3 प्रतिशत की तेजी के साथ 23.5 डॉलर प्रति बैरल पर था।
न्यूयॉर्क में सोमवार को कीमतें 2002 के बाद से अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गईं थीं और वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट कुछ समय के लिए 20 डॉलर प्रति बैरल से नीचे गिर गया था। दुनिया भर में कोरोना वायरस के प्रकोप को रोकने के लिए सरकारें लॉकडाउन कर रही हैं, जिसके चलते तेल की कीमतों में गिरावट आई है। सऊदी अरब और रूस के बीच कीमत युद्ध के चलते कच्चा तेल और कमजोर हुआ है। इसबीच खबर आई कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनके रूसी समकक्ष व्लादिमीर पुतिन के बीच सोमवार को तेल कीमतों पर चर्चा हुई। ऐसे में माना गया कि रूस और सऊदी अरब के बीच उत्पादन को लेकर सहमति बन सकती है।
भारत ने बनाई दोहरी रणनीति
भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा तेल का आयातक है और यह जरूरत का 80 पर्सेंट तेल आयात करता है। भारत सस्ते तेल के इस मौके को गंवाना नहीं चाहता है और इसलिए उसने कच्चे तेल को ज्यादा से ज्यादा स्टोर करने का फैसला किया है।
घटते दाम से सरकार का भर रहा है खजाना
कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से एक तरफ भारत को कम विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ रही है। वहीं दूसरी ओर वह कच्चे तेल के दाम में गिरावट के बाद पेट्रोल-डीजल का दाम घटाने की बजाय उत्पाद शुल्क बढ़ाकर सरकारी खजाना भर रहा है। उत्पाद शुल्क एक रुपया बढ़ने पर सरकार को 13 हजार करोड़ का लाभ होता है।
गिरावट के बाद भी क्यों सस्ते नहीं मिल रहे हैं पेट्रोल-डीजल?
अब लोगों के जेहन में एक सवाल उठ रहा है कि तेल पर इस प्राइस वॉर का भारत पर क्या असर होगा। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश है और अपनी जरूरत का 85% आयात करता है। जाहिर है तेल की कीमत में कोई भी गिरावट उसके आयात बिल को कम करेगा पर क्या भारतीय कंज्यूमरों को इसका फायदा होगा? जवाब है- मामूली फायदा हो सकता है, लेकिन पेट्रोल, डीजल की कीमत में बड़ी कटौती की उम्मीद न करें। केंद्र और राज्य सरकारें इस मौके का इस्तेमाल एक्साइज ड्यूटी और वैट बढ़ाकर अतिरिक्त राजस्व जुटाने के लिए करेंगी।
तेल के खेल में सरकरों ने भर लिए अपने खजाने
पिछली बार साल 2014 से 2016 के बीच कच्चे तेल के दाम तेजी से गिर रहे थे तो सरकार इसका फायदा आम लोगों को देने के बजाय एक्साइज ड्यूटी के रूप में पेट्रोल-डीजल के जरिए ज्यादा से ज्यादा टैक्स वसूल कर अपना खजाना भरने में लगी रही। नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच केंद्र सरकार ने 9 बार एक्साइज ड्यूटी बढ़ाया और केवल एक बार राहत दी। ऐसा करके साल 2014-15 और 2018-19 के बीच केंद्र सरकार ने तेल पर टैक्स के जरिए 10 लाख करोड़ रुपये कमाए। वहीं राज्य सरकारें भी इस बहती गंगा में हाथ धोने से नहीं चूकीं। पेट्रोल-डीजल पर वैट ने उन्हें मालामाल कर दिया। साल 2014-15 में जहां वैट के रूप में 1.3 लाख करोड़ रुपये मिले तो वहीं 2017-18 में यह बढ़कर 1.8 लाख करोड़ हो गया।
कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर की वृद्धि से 2,936 करोड़ रुपये पड़ता है बोझ
क्रूड ऑयल के दाम में आई गिरावट का फायदा पेट्रोल-डीजल के उपभोक्ताओं को नहीं मिलने की एक और वजह है। दरअसल, कच्चे तेल की कीमत में एक डॉलर की कमी से भारत का आयात बिल 2,936 करोड़ रुपये कम होता है। इसी तरह डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में एक रुपये प्रति डॉलर का बदलाव आने से भारत के आयात बिल पर 2,729 करोड़ रुपये का अंतर पड़ता है। तेल कंपनियों के अधिकारियों का कहना है कि देश के आयात बिल पर अगले वित्त वर्ष की शुरुआत में अप्रैल में फर्क पड़ सकता है, लेकिन वह तेल और मुद्रा बाजार में अनिश्चिता के चलते इसके बारे में कोई सही अनुमान नहीं लगा सकते हैं।

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